रामवृक्ष बेनीपुरी की रचना ‘मंगर’ का सारांश लिखिए

रामवृक्ष बेनीपुरी की रचना ‘मंगर’ का सारांश लिखिए

उत्तर : – श्री रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बेनीपुरी ग्राम में सन् 1902 में हुआ था। इनके पिता एक साधारण किसान थे। बेनीपुरी जी के बचपन में ही माता-पिता का देहांत हो गया । जब ये मैट्रिक में ही थे कि देश में असहयोग आदोलन प्रारंभ हो गया ।

15 वर्ष की अवस्था में इन्होने हिन्दी-साहित्य सम्मेलन से विशारद की परीक्षा पास की । वह 14 बार जेल गए तथा विभिन्न आन्दोलन मे भाग लिया था, तथा जानेमाने पत्रकार भी थे। बेनीपुरी जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। इन्हाने जीवन के भिन्न- भिन क्षेत्रों मे भाग लिया तथा सभी क्षेत्रों में सफलता हासिल की। दिनकर जी के शब्दो में ‘बेनीपूरी’ नाम कई अर्थों का व्यंजक है। एक बेनीपुरी ने बाल- साहित्य का निर्माण किया, एक बेनीपुरी स्वास्थ्य सबलता , त्याग तपस्या और सामाजिक तथा राजनीतिक क्रान्ति में युवकों का आदर्श रहा, एक बेनीपुरी की गिनती समाजवादी

दल के संस्थापकों में की जाती है। साहित्य के भीतर से इस बेनीपुरी ने कितने ही ऐसे विचारों और आन्दोलनों का पूर्व संकेत दिया, जो कई वर्ष बाद प्रकट होने वाले थे। एक बेनीपुरी सरस नाटककार और एक अद्भुत शब्द शिल्पी है। भारत भर में आज जिसके स्केचों की धूम है और कुल मिलाकर देखिए तो सभी बेनीपुरी एक ही बेनीपुरी के विभिन्न पहलू है। मगर सब के सब आकर्षक, सब के सब आबदार ।” वास्तव मे बैनीपुरी जी कलम के जादूगर थे। इनका देहावसान 1968 ई० में हुआ।

मंगर बेनीपुरी जी का हलवाहा था। वह कमर में वस्त्र के नाम पर लाल भगवा भर पहनता था। वह अपने काम में बड़ा दक्ष था। लेखक के बाबा और चाचा उसे बहुत मानते थे। वह मंगल था अभाव-ग्रस्त पर उसमें स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा था। क्या मजाल की कोई उसे खरी-खोटी सुना दे।

मंगर अपने काम में डटा रहता, इसलिए उसे अन्य मजदूरों की अपेक्षा उसे विशेष और अच्छी रोजी मिलती। वह लेखक को बहुत मानता था कई बार लेखक उसके कन्धे पर चढ़ा था।

वह बाहर से तो बहुत कठोर मालूम पड़ता था, पर भीतर से बहुत कोमल एवं भावप्रवण था। पर्व त्योहार के अवसर पर मंगर के प्रति विशेष सहानुभूति दिखायी जाती थी। कभी- कभी उसे धोती भी मिलती। वह पहनता ! पर वह भगवा पहनने बाद भी सुन्दर लगता था ।

उसके शरीर की बनावट बड़ा ही सुव्यवस्थित और सुन्दर था। अत: वह लेखक को वह उसी रूप में अच्छा लगता था।

एक बार मंगर के सिर में दर्द हुआ। उसकी पत्नी भकोलिया जो कि एक आदर्श पत्नी थी कहीं से दालचीनी ले आयी और उसके सिर पर उसका लेप लगा दिया । सर दर्द तो जाता रहा, पर साथ ही उसका एक आंख की रोशनी जाती रही।

एक बार जाड़े के महीनें में लेखक अपने गाँव गया। लेखक आराम से सोया हुआ था। जागने पर उसने एक आदमी को लड़खड़ाकर चलते देखा। वह ठीक से नहीं पहचान सका की कौन है। बाद में मालूम हुआ कि वह तो मंगर है वह एकदम जर्जर हो गया था। उसे देखकर लेखक के हदय में करुणा उमड़ आयी।

मंगर ‘बेनीपुरी जी का एक बड़ा ही बिश्वासी हलवाहा था। वह था तो दरिद्र, पर दीन नहीं था। स्वाभिमान उसकी नस -नस में भरा था वह इतना विश्वासी था और इतना डटकर काम करता था कि कहानीकार के बाबा उसे बहुत मानते थे। जहां एक ओर दूसरे मजदूरों को एक रोटी मिलती थी वहाँ मंगर को डेढ़ रोटी मिलती थी । बिना कहे सुने वह खेती के काम बड़े चौकसी से करता था। मंगर देखने में काला- कलूटा था, पर था खूबसूरत। मंगर की मानवता महान थी। वह मनुष्यों को तो प्यार करता ही था पर पशुओं को भी प्यार करता था। वह बैलों को साक्षात महादेव मानता था, खाने पीने से पहले वह अपने हिस्से की रोटी उन बैलों को जरूर खिलाता। उसके यह गुण हमारे भारतीय किसानों के जीवन में देखने को मिलता है। और सच कहें तो भारत हमारे गाँव में ही निवास करता है ।

About the author

Post a Comment

Please comment if you have any doubt related to any content on this page or on this website